रविवार, 18 मार्च 2012

स्वप्न का रहस्य – अंतिम भाग


   अभी तक आप पढ़ चुके हैं – प्रकृति में शक्तियों के उदय और अवसान की स्वाभाविक प्रक्रिया एक सनातन सत्य है। शून्य जिन शक्तियों को प्रकट करता है उन्हें एक निश्चित कालोपरांत पुनः अपने में समेट लेता है। प्रकृति की इस अद्भुत लीला को समझ लेने के पश्चात हम जन्म के सुख और मृत्यु के दुःख को सहज भाव से स्वीकार कर लेते हैं। तत्ववेत्ताओं ने काल और दिक के महत्व को स्वीकार कर उनका आवर्तिक वर्गीकरण किया। इतनी चर्चा के पश्चात ज़ोडोरियस ने सत्य के लौकिक भेदों के बारे में अपनी जिज्ञासा प्रकट की। अब आगे की कथा इस प्रकार है-

   ज़ोडोरियस का यह प्रश्न बड़ा ही व्यावहारिक था। एक श्रेष्ठ जिज्ञासु को अपने सम्मुख पाकर चिरायु ऋषि भी आनन्दित थे। हिमालय की दिव्य भूमि में जब यह सम्वाद हो रहा था तब भी कलियुग ही था, पर यह अभी वाला कलियुग नहीं...... बहुत युगों पहले वाला कलियुग। उसके बाद से तो न जाने कितनी बार चतुर्युग बीत चुके हैं।
   
   ज़ोडोरियस की जिज्ञासा सुनकर ऋषि बोले- “लौकिक जगत की अपनी सीमायें होती हैं इसीलिये लौकिक सत्य भी सीमित किंतु बहु आयामी होता है। यह पूर्ण सनातनसत्य नहीं, हम इसे एकदेशीय सत्य कह सकते हैं। एकदेशीय होने के कारण अन्य देश के लिये यह छायावत ही प्रभावी हो पाता है। दूसरा कारण है व्यक्ति विशेष की विशिष्ट स्थित और अवलोकन क्षमता। भ्रांतियाँ इसीलिये उत्पन्न होती हैं। भ्रांति सत्य न हो कर भी सत्य जैसी ही प्रतीत होती है। किसी के ‘होने’ और उसके ‘प्रतीत होने’ में तात्विक अंतर है। ये आभासी सत्य केवल समुदायों में ही नहीं अपितु हर व्यक्ति में कुछ न कुछ भिन्नता लिये हुये होते हैं। एक का आभासीसत्य दूसरे के आभासीसत्य से भिन्न होने के कारण द्वन्द का कारण बनता है। कलियुग में सत्य के अंतिम पाद का क्षरण हो रहा होता है इसलिये रजोगुण ......और उससे भी अधिक तमोगुण की प्रमुखता के कारण अहंकार और अतत्वाभिनिवेश अपनी चरम सीमा की ओर गति करते दिखायी देते हैं। ‘अकरणीय’ करणीय हो जाते हैं और ‘करणीय’ अकरणीय। ‘कुविचार’ स्वीकार्य हो जाते हैं और ‘सुविचार’ वर्ज्य एवम उपेक्षित। वृत्तियाँ अधोगामी हो जाती हैं, लोग वेदों में अनर्थ का आरोपण करने लगते हैं, भ्रष्ट आचरण और नैतिक पतन स्वार्थ सिद्धि के स्वीकार्य साधन बन जाते हैं, लोग मांसाहार में अहिंसा और शाकाहार में हिंसा देखने लगते हैं, ईश्वर की सृष्टि पर अनधिकृत अधिकार करने की चेष्टा कर प्रकृति के विरुद्ध आचरण करने के लिये उद्द्यत हो उठते हैं और न केवल दैहिक अपितु मानसिक हिंसा भी प्रशस्त मानी जाने लगती है। यह आभासी सत्य वैश्विक व्यापार बनकर उभरता है और प्रतिक्षण अपने हिंसक प्रभाव से न केवल मनुष्य समाज में अपितु चराचर जगत में विनाश लीला का कारण बनता है। हिंसक शक्तियों का प्रभाव जीवन और समाज के हर क्षेत्र में प्रबल हो जाता है। प्राणों के रक्षण के स्थान पर उनके हरण की गतिविधियों में समाज की रुचि अधिक रहती इसी कारण सबल अत्याचार ‘करने’ के लिये स्वतंत्र और दुर्बल अत्याचार ‘सहने’ के लिये बाध्य हो जाते हैं। बौद्धिक प्रवाह की गति प्राणिमात्र के लिये भोजन की नहीं अपितु अस्त्र-शस्त्र की व्यवस्था की ओर हो जाती है ताकि हिंसा के वर्चस्व को स्थापित किया जा सके। ‘वर्ज्य’ स्वीकार्य हो प्रतिष्ठित हो जाता है। प्राणियों में बुद्धिमान होने का मनुष्य को दिया ईश्वरीय उपहार ही अधोवृत्ति और बौद्धिक शक्ति के दुरुपयोग के कारण जीवन के विनाश का भी कारण बनता है। बुद्धि उपहार भी है और अभिषाप भी.....जो जिस रूप में स्वीकार कर सके।“
   ज़ोडोरियस के मस्तक पर चिंता की रेखायें उभर आयीं, कलियुग में मनुष्य की अधोवृत्ति और अतत्वाभिनिवेष के सम्भावित परिणामों से वह काँप उठा। दीनभाव से उसने अपने हाथ जोड़कर विनती की- “प्रभु! तो ऐसी स्थिति में मनुष्य को क्या करना चाहिये? प्राकृतिक शक्तियों के उदय और अवसान को तो हमें स्वीकारना ही होगा किंतु मनुष्यकृत विनाश लीला से बचने का क्या उपाय है?”
   ऋषि ने परिहास किया -“मनुष्य भी तो प्रकृति का ही एक घटक है, उससे भयभीत होने की क्या आवश्यकता? वह अन्य दैवीय शक्तियों से अधिक शक्तिशाली तो नहीं!”
 
   वे किंचित रुककर पुनः मुस्कराकर बोले- “जिनकी बुद्धि अभी अधोगामी नहीं हुयी है उन्हें स्थितप्रज्ञ की तरह आचरण करना होगा.... सत्य के बीज को बचाकर रखना होगा ताकि उचित अवसर आने पर पुनः बीजारोपण किया जा सके..... उन्हें अस्तित्व के संघर्ष के लिये स्वयं को अर्पित करना होगा”  
  
   ऋषि के बताये उपाय से संतुष्ट हो ज़ोडोरियस बोला- “भगवन! मैं संतुष्ट हुआ, किंतु एक प्रार्थना है .... मैं अब वापस ग्रीस नहीं जाना चाहता। मुझे अपने चरणों में आश्रय दीजिये, मैं यहीं रहकर साधना करूँगा।“
   ऋषि ने कहा –“ हिमालय में तुम्हारा स्वागत है किंतु ग्रीस को तुम्हारी आवश्यकता है ....और केवल ग्रीस को ही नहीं अपितु सम्पूर्ण पश्चिम को तुम्हारी आवश्यकता है। युगों से यही परम्परा रही है कि पश्चिम से लोग यहाँ आते रहे हैं किंतु दीप जला लेने के बाद उन्हें वापस जाना ही पड़ा है। वे वापस नहीं जायेंगे तो पश्चिम में बीजारोपण कौन करेगा!”

   ऋषि के मन में वैश्विक चिंता और प्राणिमात्र के प्रति करुणा के भाव देखकर ज़ोडोरियस भाव विव्हल हो उठा। उसके अश्रु बह उठे, ऋषि चरणों में प्रणाम करते समय उसके अवरुद्ध कण्ठ से मात्र इतना ही निकल सका- “मैने ठीक ही सुना था, हिमालय की यह भूमि दिव्य है।”

                                 समाप्त ।           
          

5 टिप्‍पणियां:

  1. सिद्ध पुरुषों की आवश्यकता सम्पूर्ण विश्व को है..सारगर्भित लेख श्रंखला।

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  2. कौशलेन्द्र जी,

    बडा ही अद्भुत और सुक्ष्म निरीक्षण!! मानव के कलयुगी स्वभाव का कर्म, कारक, परिणाम और समाधान का गम्भीर विवेचन!! शुद्ध और स्पष्ट विचारधारा को नमन !!

    ‘अकरणीय’ करणीय हो जाते हैं और ‘करणीय’ अकरणीय। ‘कुविचार’ स्वीकार्य हो जाते हैं और ‘सुविचार’ वर्ज्य एवम उपेक्षित। वृत्तियाँ अधोगामी हो जाती हैं, लोग वेदों में अनर्थ का आरोपण करने लगते हैं, भ्रष्ट आचरण और नैतिक पतन स्वार्थ सिद्धि के स्वीकार्य साधन बन जाते हैं, लोग मांसाहार में अहिंसा और शाकाहार में हिंसा देखने लगते हैं, ईश्वर की सृष्टि पर अनधिकृत अधिकार करने की चेष्टा कर प्रकृति के विरुद्ध आचरण करने के लिये उद्द्यत हो उठते हैं और न केवल दैहिक अपितु मानसिक हिंसा भी प्रशस्त मानी जाने लगती है। यह आभासी सत्य वैश्विक व्यापार बनकर उभरता है और प्रतिक्षण अपने हिंसक प्रभाव से न केवल मनुष्य समाज में अपितु चराचर जगत में विनाश लीला का कारण बनता है। हिंसक शक्तियों का प्रभाव जीवन और समाज के हर क्षेत्र में प्रबल हो जाता है। प्राणों के रक्षण के स्थान पर उनके हरण की गतिविधियों में समाज की रुचि अधिक रहती इसी कारण सबल अत्याचार ‘करने’ के लिये स्वतंत्र और दुर्बल अत्याचार ‘सहने’ के लिये बाध्य हो जाते हैं। बौद्धिक प्रवाह की गति प्राणिमात्र के लिये भोजन की नहीं अपितु अस्त्र-शस्त्र की व्यवस्था की ओर हो जाती है ताकि हिंसा के वर्चस्व को स्थापित किया जा सके।

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  3. कथा है, निबन्ध है, इतिहास है, जो भी है - एकदम अलग, रोचक और सारपूर्ण लगी यह शृंखला! आभार!

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  4. ज्ञान गंगा बहती रही है, बहती रहेगी।

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  5. एक बेहतरीन श्रृंखला के लिए बहुत बहुत आभार

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