रविवार, 9 अक्तूबर 2011

ताजमहल की असलियत ... एक शोध -- 4




भाग - 1, भाग - 2, भाग -3 से आगे ----

 

०३) टेवर्नियर : एक खोज

पाठकों को आश्चर्य हो रहा होगा कि जब स्वयं शाहजहाँ का कथन है कि मुमताज उज-ज़मानी को बने हुए भवन में दफनाया गया था तब संसार में यह क्यों तथा कैसे प्रसिद्ध हुआ कि शाहजहाँ ने अर्जुमन्द बानों बेगम के शव को दफनाने के लिये महान्‌ आश्चर्यजनकभवन का निर्माण कराया था जो बाद में 'ताजमहल' के नाम से प्रसिद्ध हुआ यही नहीं इसके साथ ही यह भी प्रसिद्ध हुआ कि इस विशाल भवन को बनाने में २२ वर्ष तक २०,००० श्रमिक कार्य करते रहे थे। यह अपने आप में एक अनोखी कहानी है और इस सारे श्रम के मूल को प्राप्त करने के लिये हमको तथ्यों की गहरी छानबीन करनी पड़ेगी।

दुर्भाग्य से इस देश ने विदेशियों को आवश्यकता से अधिक ही मान-सम्मान प्रदान किया है, विशेष कर गोरी चमड़ी वालों को। उनके ज्ञान का हम लोहा मानते रहे हैं। इसका नवीनतम प्रमाण है 'योग'। आज से भी कुछ दशक पहले योग को कुछ विद्वान्‌ एवं मनीषी ही जानते थे। वही 'भारतीय योग' जब विदेश भ्रमण कर भारत वापस आया तो 'योगा' के नाम से इसे 'घर-घर में सम्मानीय स्थान मिल गया। इसी प्रकार ताजमहल का इतिहास जानने के लिये भी हमने पश्चिम की ओर देखा और जिसने भी जो कुछ लिख दिया उसे ही आँख मूँद कर सत्य की पराकाष्ठा के रूप में स्वीकार कर लिया, बिना यह विचारे के लेखक का मन्तव्य क्या है, वह किन परिस्थितियों में लिख रहा है, किन बातों ने उसे प्रभावित किया है अथवा वह इस देश तथा रीति-रिवाज से कितना परिचित हो सका है, आदि।

जीन बैपटिस्ट टैवर्नियर (१६०५ - १६८१) पेरिस निवासी फ्राँसीसी रत्न व्यापारी था। इसने अपनी यात्रा के वर्णन 'ट्रेवल्स इन इण्डिया) नामक पुस्तक में लिखे हैं। इस पुस्तक का सबसे पहला प्रकाशन फ्रेंच भाषा में सन्‌ १६७६ में हुआ था। डा. वी. बाल ने इस पुस्तक को अंग्रेजी में अनूदित कर दो खण्डों में मैकमिलन एण्ड कम्पनी, लन्दन द्वारा सन्‌ १८८९ में प्रकाशित कराया था। इस पुस्तक के प्रथम खण्ड में पृष्ठ १०९-१११ पर टेवर्नियर ने ताजमहल का वर्णन किया है। उसने अन्य बातों में साथ ही लिखा है— मैंने इस महान कार्य को प्रारम्भ होते तथा परिपूर्ण होते देखा है। इस पर उन्होंने २२ वर्षों का समय लिया जिसमें २०,००० (बीस सहस्र) व्यक्ति लगातार कार्यरत रहे।......... कहा जाता है कि मचान बनाने पर 'पूरे कार्य' से अधिक व्यय हुआ, क्योंकि लकड़ी (बांस बल्ली आदि) उपलब्ध न होने के कारण उन्हें ईंटों का प्रयोग करना पड़ा (साथ ही साथ) महराब को संभालने के लिये।

उपरोक्त कथन स्पष्ट एवं सपाट है। बिना लाग लपेट के लेखक ने अपनी बात कही है, इसीलिये इस कथन को इतना अधिक महत्व दिया गया कि इसे ही शाहजहाँ द्वारा ताजमहल निर्माण के प्रमाणस्वरूप उद्धृत किया जाने लगा एवं इसी कथन को आधार मानकर ताजमहल का निर्माण-काल सन्‌ १६३१ से सन्‌ १६५३ ई. माना गया।

उपरोक्त कथन की विवेचना एवं समीक्षा करने से पूर्व मैं कोई तर्क, वितर्क अथवा कुतर्क न करते हुए कुछ प्रश्न चिह्न लगाना चाहूँगा। 


  • क्या किसी बात को केवल इसीलिये महत्व दिया जाए कि वह किसी विदेशी विशेषकर यूरोपियन ने कही है? 
  • क्या प्रत्येक यूरोपियन को ज्ञान सम्पन्न-पंडित स्वीकार कर लिया जाए चाहे वह टैविर्नियर के समान ही बहुत कम पढ़ा लिखा हो ? 
  • क्या साधारण यात्रा-वृत्त को सम्पूर्ण इतिहास मान आँख मूँद कर स्वीकार कर लिया जाय? 
उत्तर सम्भवतः, नहीं में आयेगा।

टैविर्नियर ने जिस आत्म-विश्वास से लिखा है, उससे सम्भव है पाठकों ने यह अनुमान लगाया हो कि टैवर्नियर लगातार २२ वर्षों तक ताजमहल का बनना देखता रहा होगा। अथवा इसी मुहिम का एक कार्यकर्ता रहा होगा। कुछ पाठकों ने यह भी सोचा होगा कि सम्भवतः वह २२ वर्षों तक आगरा आता-जाता रहा होगा, कम से कम सन्‌ १६३१ में कार्य प्रारम्भ होते समय तथा सन्‌ १६५३ में कार्य समाप्त होते समय तो वह अवश्य ही उपस्थित रहा होगा। क्योंकि तभी वह इस महान्‌ कार्य का साक्षी हो सकता है। दुर्भाग्य से टैवर्नियर इन दोनों अवसरों पर उपस्थित नहीं था। मात्र इतने से ही यह सिद्ध हो जाता है कि टैवर्नियर के कथन में सत्य का अंश न्यून है, इसके पश्चात्‌ किसी अन्य प्रमाण की आवश्यकता ही नहीं रहती है।

डॉ. बाल के प्राक्कथन के पृष्ठ १४ के अनुसार टैवर्नियर आगरा में सबसे पहली बार सन्‌ १६४०-४१ की शरद ऋतु में आया था। अर्थात्‌ टैवर्नियर के अनुसार ताजमहल सन्‌ १६४० के अन्तिम मासों में बनना प्रारम्भ हुआ होगा? क्या भूतकाल का इतिहास लेखक एवं आज का प्रबुद्ध पाठक इसे स्वीकार करेगा? नहीं, परन्तु कुतर्क के आधार पर मैं स्वीकार कर लेता हूँ कि सन्‌ १६४० में टैवर्नियर के आगरा आगमन के बाद ही ताजमहल का निर्माण प्रारम्भ हुआ होगा। टैवर्नियर झूठ क्यों बोलेगा? वह विदेशी है, यूरोपीय है, निष्पक्ष है। यहाँ की किसी जाति-विशेष से उसका कोई सम्बन्ध नहीं था और सबसे बड़ी बात तो यह है कि वह अपने को प्रत्यक्षदर्शी कहता है। क्योंकि किसी भी शव को भूमि में दफन करने के कितने ही वर्षों बाद उसके ऊपर मकबरा बनाया जा सकता है तो यहाँ भी सन्‌ १६४० में बनना प्रारम्भ हो सकता है, परन्तु यहाँ पर हम यह भी नहीं भूलना चाहिए कि बादशाहनामा में स्पष्ट उल्लेख हे कि साम्राज्ञी के शव को खुली भूमि में नहीं अपितु बने हुए भवन में दफनाया गया था। साथ ही भवन को उपयुक्त अवस्था में लाने के लिये उसे कुछ मास के लिये बाहर बाग में रखा गया था। अतः यह सिद्ध होता है कि टैवर्नियर ने ताजमहल के बनने का प्रारम्भ नहीं देखा था।

क्या टैवर्नियर के कथन का दूसरा अंश सत्य है? क्या टैवर्नियर ने ताजमहल परिपूर्ण होते हुए देखा था ? अनेक इतिहासकारों का मत है कि ताजमहल का निर्माण-काल सन्‌ १६३१ से सन्‌ १६५३ ई. था। सम्भव है यह धारणा टैवर्नियर के ही इस कथन से बनी हो कि इस कार्य पर २२ वर्षों तक निरन्तर कार्य हुआ। यदि हम १६५३ को ताजमहल के बनने का समापन वर्ष मानें तो उस समय टैवर्नियर के स्वकथनानुसार उसे उस वर्ष ताजमहल के पास ही होना चाहिए था।

यह सत्य है कि टैवर्नियर ने सन्‌ १६५१-५५ में भारत वर्ष की यात्रा की थी, परन्तु इस यात्रा में वह आगरा तो क्या उत्तर भारत में भी नहीं आया था। टैवर्नियर की उस यात्रा के स्थल इस प्रकार रहे थे। डॉ. बाल के अनुसार वह मछलीपट्‌टनम्‌-मद्रास-गन्डेफोट-गोलकुण्डा-सूरत-अहमदाबाद-सूरत-अहमदाबाद और अन्त में सूरत होकर वापस फ्रांस चला गया था। इस प्रकार इस यात्रा में वह आगरा आया ही नहीं था। अतः सन्‌ १६५३ में उसके द्वारा ताजमहल परिपूर्ण होते देखना सिद्ध नहीं होता है।

अब भी एक शंका तो रह ही जाती है। सम्भव है टैवर्नियर ने सत्य ही लिखा हो और ताजमहल वास्तव में सन्‌ १६४१-६३ (२२ वर्ष) में ही बना हो और इस प्रकार टैवर्नियर ने इस कथन का प्रारभ तथा समापन स्वयं देख हो, क्योंकि अपनी चौथी भारत यात्रा के दौरान वह सन्‌ १६५७-६२ में भारत वर्ष में था।

ध्यान दें : 
सन्‌ १६५८ ई. में औरंगज़ेब ने सम्राट शाहजहाँ को गद्‌दी से उतार कर लाल किले में बन्दी बना लिया था, जहाँ से अनेक विद्वानों के अनुसार वह आंसू भरी आंखों से ताजमहल को ताका करता था अर्थात्‌ बने हुए भवन को न कि अधबने भवन को जिसे पूरा होने में अभी ५ वर्ष और लगने बाकी थे। किसी ने भी यह नहीं कहा कि शाहजहाँ ताजमहल को बनते हुए बन्दीगृह से देखा करता था। किसी ने यह नहीं कहा कि ताजमहल बनाना शाहजहाँ ने प्रारम्भ किया था, परन्तु औरंगजे़ब ने अपने पिता द्वारा प्रारम्भ किये हुए कार्य को पिता को बन्दी बनाकर भी माता के प्रति भक्तिभाव से पूरा किया था। इतिहास में स्पष्ट लिखा है कि चित्तौड़गढ़ का विजय स्तम्भ बनाना तो राणा कुम्भा ने प्रारम्भ किया था, परन्तु उसकी मृत्यु के उपरान्त उसे पूरा उनके पुत्र ने किया था। कोई औरंगजे़ब जैसे शासक से यह आशा कैसे कर सकता है कि वह इस प्रकार के फालतू कामों पर एक पैसा भी खर्च करता जिसके अपनी कंजूसी के कितने ही चर्चे प्रसिद्ध हैं।

अस्तु, यह अब स्वयं सिद्ध है कि टैवर्नियर ने ताजमहल का प्रारम्भ एवं समापन नहीं देखा था।


ज़ारी....
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