शनिवार, 18 दिसंबर 2010

मजहबी संस्कृति बनाम राष्ट्रीयता....

अमूमन जो व्यक्ति जिस घर,जिस कुटुम्ब, जिस कुल में जन्म लेता है, वह उस पर अपना स्वामित्व रखता है और अपने कुल की मर्यादा का ध्यान रखते हुए अपने पुरखों के संस्कार लेकर चलता है. परन्तु ऎसा भी होता है कि किसी दूसरे घर में पैदा हुए बच्चे को अगर कोई व्यक्ति 'गोद' ले लेता हैं,तो वह भी इस नये घर में आकर संतान होने के समस्त अधिकार स्वत: ही पा जाता है. गोद आए हुए बच्चे अर्थात दत्तक सन्तान को इस नये घर को ही 'अपना' घर समझना होता है. इसी घर के पुरखों को वह अपनाता है और इसी के आचार-विचार ग्रहण करता है. परन्तु उसके मन में कदाचित यह विचार भी आ सकता है----आना स्वाभाविक है---कि मैं इस घर में आ गया हूँ, पर मेरा असली घर तो वह है जहाँ से ये लोग मुझे लेकर आए हैं! यानि थोडी बहुत ममता उधर भी रहती है, रह सकती है. परन्तु इस गोद आए हुए बच्चे की भावी पीढियाँ 'उस' घर की ममता एकदम छोड देती है, जिस घर से उनका वह पूर्वज आया था. वे सुनी-सुनाई बातों से इतना जानते भर हो सकते हैं कि हमारा वो पूर्वज अमुक जगह से गोद लिया गया था. आगे चलकर वह स्मृति भी प्राय: नहीं रहती.
इसी तरह एक जाति किसी दूसरी जाति के घर में----उसके राष्ट्र में पहुँच जाती है. वहाँ पहुँच युद्ध आदि के द्वारा विजेता रूप में रहती है, तो कुछ दिन तक गुप्त-प्रकट संघर्ष रहता है और फिर आपस में उन जातियों का मेल हो जाता है. धीरे-धीरे यह नई आई हुई जाति उस नई जगह को अपना लेती है---उसी में घुलमिल जाती है और वह अनेकता पुन: एकता में परिणत हो जाती है. ऎसी स्थिति में "प्राधान्येन व्यपदेशा भवन्ति"----बहुत्व के आधार पर नाम-रूप ग्रहण होता है. जो धारा पहले से प्रतिष्ठित है, जो आधिक्य से भी है, उस का नाम-रूप रहता है. दूसरी उसी में विलीन हो जाती है. ऎसा नहीं होता कि दो संस्कृतियों के इस 'संगम' के बाद 'मिश्रित' नाम की कोई नई ही संस्कृति बन जाए! गंगा में आरम्भ से लेकर समुद्र प्रयन्त हजारों नदी-नाले मिलते हैं, परन्तु सब की वह मिली-जुली धारा आखिर रहेगी "गंगा" ही.
इसी तरह भारतीय जाति----यानि "हिन्दुस्तान" में बाहर से आ-आकर शक, हूण, मंगोल, मुगल आदि न जाने कितनी धाराएं मिली और खप गई. सब के सब स्वत: भारतीय बन गए. यहाँ का रहन-सहन और आचार-विचार ग्रहण कर लिया और बस! मत-मजहब चाहे जो मानते रहो. एक जाति में सैकडों मत-मजहब रह सकते हैं. कोई ईश्वर को मानता है, कोई नहीं मानता; दोनों ही "भारतीय" हैं, यदि भारतीयता उनमें बरकरार है. जब तक कोई बाह्य संस्कृति के रंग में डूबा रहेगा, तब तक वह सच्चे रूप में "भारतीय जाति" का नहीं हो सकता. हो ही नहीं सकता, अब कहने को भले ही कोई कुछ भी कहता रहे, समझता रहे.
शक, हूण और मंगोल आदि जो जातियाँ कभी इस देश में आई होंगी, वे सब तो "भारतीय" बनकर इस समाज में मिल-खप गई; पर बाद में आगे आने वाले कईं जातियों के लोग----पूरी तरह से न मिल सके! मजहब की आड लेकर उन लोगों द्वारा एक पृथक संस्कृति के निर्माण के प्रयास किए जाते रहे, बल्कि एक तरह से कहें तो निर्माण कर ही लिया गया. अब एक ही राष्ट्र में दो संस्कृतियाँ जन्म ले चुकी हैं, तो दो जातियाँ बन ही गई. "संस्कृति" और "जातीयता" प्राय: एक ही चीज है. "हिन्दू" और "हिन्दू-संस्कृति" एक ही चीज समझिए. हिन्दू तो एक जाति, जिस में हजारों मत-मजहब और वर्ग या दल हैं. परन्तु इस्लाम एक मजहब है, जाति नहीं. दशकों से इस मजहब के आधार पर ही भारत में एक नईं संस्कृति का निर्माण किया जाता रहा है, जिसे सब लोग "मुस्लिम-संस्कृति" कहते हैं. एक राष्ट्रीय संस्कृति और दूसरी महजबी संस्कृति. तुर्क-संस्कृति, अरब-संस्कृति, ईरानी-संस्कृति, चीनी-संस्कृति आदि की तरह ही "हिन्दू-संस्कृति" है, राष्ट्रपरक न कि मत-परक. हिन्दू-संस्कृति और भारतीय-संस्कृति दोनों पर्य्याय-शब्द हैं. दूसरे लोग जब 'हिन्दू' को एक धर्म समझने लगे, तब 'भारतीय-संस्कृति' शब्द चला. परन्तु 'मुस्लिम-संस्कृति' के साथ-साथ 'हिन्दू-संस्कृति' शब्द भी चलता ही रहा, चल ही रहा है और आगे चलेगा भी. शब्द कहाँ तक छोडे जाएँगें. हिन्दू भी तो विदेशियों नें ही कहना शुरू किया था, जिसका सम्बन्ध सिन्धु से है; किसी मजहब से नहीं. इसलिए हमने----भारतीयों नें इसे ही ग्रहण कर लिया.
जब दो संस्कृतियाँ, तो दो जातियाँ-----उसी का परिणाम दो राष्ट्र ! इस बात को तो हर व्यक्ति जानता हैं कि भिन्न संस्कृति---"मुस्लिम-संस्कृति" के आधार पर ही कभी इस राष्ट्र के दो टुकडे किए गए थे. जहाँ-जहाँ 'मुस्लिम-संस्कृति' या इस्लाम की प्रधानता थी, सब को काट-जोडकर एक नया राष्ट्र बना-पाकिस्तान!
परन्तु बचे हुए शेष भारत में तो अब भी वह 'दूसरी' संस्कृति कायम है, उस संस्कृति के अभिमानी यहाँ कितने ही करोडों लोग हैं. सौ-पचास तो आपके यहाँ ब्लागजगत में ही मिल जाएँगें, जिन्हे आप सब बखूबी जानते हैं. इन लोगों का बस चले तो ये लोग राष्ट्रभाषा हिन्दी से बदलकर फारसी कर दें. संविधान को दरकिनार कर देश में शरियत ही लागू कर दें, वैश्चिक बैंकिंग प्रणाली को बन्द कर देशभर में सिर्फ इस्लामिक बैंकिंग प्रणाली ही लागू कर दी जाए. भिन्न संस्कृति के अनुरूप ये लोग सभी बातों में पूरी तरह से भिन्नता बनाए हुए हैं.
अभी बीते दो-चार दिनों की ही बात है, यहीं किसी ब्लाग पर, बनारस बम विस्फोट के सूत्रधार इण्डियन मुजाहिदीन नाम के किसी इस्लामिक आंतकवादी संगठन द्वारा मीडिया के नाम भेजे गए एक सन्देश को पढ रहा था. शायद आप लोगों नें भी पढा हो.यदि न पढ पायें हो तो जरा इस पंक्ति को पढ लीजिए....."इंडियन मुजाहिद्दीन,महमूद गजनी,मुहम्मद गोरी,कुतुबुद्दीन ऐबक,फिरोज शाह तुगलक और औरंगजेब (अल्लाह इनको अपनी कुदरत से नवाजे)के बेटों ने यह संकल्प लिया है.......". देखिये ये है "मजहबी संस्कृति" का दुष्परिणाम, जिसे ये राष्ट्र भोगने को विवश है.
अब जम्मू-कश्मीर को ही देख लीजिए. दशकों से वहाँ जो नारकीय हालात बने हुए हैं, वो भी किसी से छुपे हुए नहीं है. सारी दुनिया जानती है. विभिन्न संचार माध्यमों के जरिए बहुत बार देखा/सुना/पढा है कि आए दिन इस्लामिक तत्वों द्वारा खुलेआम "पाकिस्तान जिन्दाबाद" के नारे लगा-लगाकर आसमान गुँजा दिया जाता है. अब इनसे कोई पूछे कि भला इस्लाम से और पाकिस्तान जिन्दाबाद से क्या सम्बन्ध? आप लोगों नें कभी कहीं पढा/सुना है कि खुद के ही देश में किसी अफगानी या ईरानी मुसलमान नें "पाकिस्तान-जिन्दाबाद" और "अफगान/ईरान मुर्दाबाद" के नारे लगाये हों? कभी सुना है कि चीन के मुसलमानों नें भी, वहाँ के बौद्धों या अन्य विधर्मियों से लडकर "पाकिस्तान जिन्दाबाद" या "अरब-जिन्दाबाद" के नारे लगाए हैं ? असम्भव!!! उन लोगों में राष्ट्रीयता है, जातीयता है और मजहब उस राष्ट्रीयता पर हावी नहीं हो सकता. राष्ट्रीयता ही आगे बढेगी. चीन बौद्ध देश है; बुद्ध की मान्यता वहाँ सर्वोपरि है. परन्तु इसका यह मतलब नहीं कि बुद्ध की जन्मस्थली(भारत) के वे मानसिक गुलाम हों. वे सब चीनी पहले हैं; बौद्ध आदि बाद में. चीन तो बुद्ध की इस जन्मस्थली हिन्दुस्तान पर सैनिक आक्रमण तक कर चुका है. अब भी इस देश की हजारों मील भूमी पर कब्जा किए बैठा है. मतलब ये है कि मजहब से ऊँचा दर्जा राष्ट्रीयता का है, जातियता का है. अगर जाति ही नहीं, तो मजहब कहाँ रहेगा ?
आज इस युग का यह सबसे बडा एवं महत्वपूर्ण काम है कि हम लोग संस्कृति का सही रूप समझकर "मजहबी मिथ्याभिमान" छोडें. तभी सही रूप में "एक जाति" का निर्माण होगा-----एक जाति का महत्व समझ में आएगा----और वो जाति होगी "भारतीय". यदि ऎसा हो पाता है, तो ही ये राष्ट्र एक सूत्र में बँधकर तेजस्वी हो पायेगा.अन्यथा.......??? न जाने ये देश कब खंड......खंड.......हो जाये!!!
जी हाँ....खंड...खंड!!

8 टिप्‍पणियां:

  1. पंडित जी,

    जमीनी सत्य विश्लेषित किया है आपने, रोग की पहचान ही करवा दी।

    "जब तक कोई बाह्य संस्कृति के रंग में डूबा रहेगा, तब तक वह सच्चे रूप में "भारतीय जाति" का नहीं हो सकता. हो ही नहीं सकता, अब कहने को भले ही कोई कुछ भी कहता रहे, समझता रहे."

    अगर कहुं कि आप जैसे महानुभावों से भारतीयता रक्षित है तो कोई अतिश्योक्ति नहिं होगी।
    संस्कृति रक्षा के लिये इसी प्रकार रोग के निदान होते रहें, रोग दूर करनें के लिये हर भारतीय उठ खडा हो तो, भारत मनुष्य मात्र का स्वर्ग सम ध्येय बन जाय।

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  2. .

    जब तक कोई बाह्य संस्कृति के रंग में डूबा रहेगा, तब तक वह सच्चे रूप में "भारतीय जाति" का नहीं हो सकता. हो ही नहीं सकता, अब कहने को भले ही कोई कुछ भी कहता रहे, समझता रहे.
    @ इस सुलझे हुए चिंतन से राष्ट्रीयता को सही से समझ पाया. मुझे लगता है आज अमन के झूठे पैगामों की कोशिश की जगह राष्ट्रीयता के पैगाम देने की ज़रुरत है.
    चीन के उदाहरण के ज़रिये आपने बड़ी सरलता से राष्ट्रीयता को भारतीय सन्दर्भ में समझाया है.
    अब मुझे 'वत्स दर्पण' से ही सभी राष्ट्रीय समस्याओं का निराकरण चाहिये.
    कृपया मुझे अपना शिष्यत्व दें. यदि कभी किसी विधर्मी से विचार-विमर्श में उलझ जाऊँगा तो आपकी ही शरण में आऊँगा.

    .

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  3. मैं न मन्दिर में न मस्ज़िद में न काबे कैलास में, मुझ को ढूंढॊ तो मैं तेरे पास में !

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  4. hi sir , kiyaa khuuubh likha hai aapne...

    visit my blog http://punjabismsshayari.blogspot.com

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  5. Merry Christmas
    hope this christmas will bring happiness for you and your family.
    Lyrics Mantra

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  6. "हम लोग संस्कृति का सही रूप समझकर "मजहबी मिथ्याभिमान" छोडें. तभी सही रूप में "एक जाति" का निर्माण होगा-----एक जाति का महत्व समझ में आएगा"-बिलकुल सही कहा आपने, प्रेरक व रोचक आपको बधाइयाँ......................

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